जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
हर क़स्र में सौ नक़्श-ओ-निगार-ए-दौलत
पीरी आई तो 'शोर' साहब फिर क्या
सब ख़ाक में मिल गई बहार-ए-दौलत
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शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
कुछ काम नहीं गबरू मुसलमाँ से हमें
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
गिरजा में गए तो पारसाई देखी
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना