गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
ज़माना एक सा बस हर बरस नहीं चलता
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है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
दिल में अपने आरज़ू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
इक नज़र ने किया है काम तमाम