ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
वो जिन का आसमाँ पे सर-ए-पुर-ग़ुरूर था
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हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
इक नज़र ने किया है काम तमाम
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
गिरजा में गए तो पारसाई देखी