पत्र Poetry (page 15)

क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

मेरा जनम दिन

बाक़र मेहदी

दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था!

बाक़र मेहदी

खोया खोया उदास सा होगा

बलराज कोमल

गो ज़रा तेज़ शुआएँ थीं ज़रा मंद थे हम

बकुल देव

पता मिलता नहीं उस बे-निशाँ का

बहराम जी

रखा सर पर जो आया यार का ख़त

बहराम जी

ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई

ज़फ़र

वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले

ज़फ़र

टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच

ज़फ़र

रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा

ज़फ़र

निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ

ज़फ़र

न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया

ज़फ़र

मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो

ज़फ़र

क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ

ज़फ़र

जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ

ज़फ़र

होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई

ज़फ़र

जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह

बदनाम नज़र

आईने से

अज़ीज़ क़ैसी

एक ही ख़त में है क्या हाल जो मज़कूर नहीं

अज़ीज़ लखनवी

वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो

अज़ीज़ हामिद मदनी

क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग

अज़ीज़ हामिद मदनी

फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए

अज़ीज़ हामिद मदनी

दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर

अज़ीज़ फ़ैसल

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना

अज़हर इनायती

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना

अज़हर इनायती

किसी ना-ख़्वांदा बूढ़े की तरह ख़त उस का पढ़ता हूँ

अतहर नफ़ीस

क़रीब से न गुज़र इंतिज़ार बाक़ी रख

अतीक़ असर

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