ऋतु Poetry (page 14)

रानाई-ए-बहार पे थे सब फ़रेफ़्ता

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

अक्स-ए-रौशन तिरा आईना-ए-जाँ में रक्खा

गुलज़ार बुख़ारी

तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए

गुलज़ार

शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई

गुलनार आफ़रीन

भूला है बा'द-ए-मर्ग मुझे दोस्त याँ तलक

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

रह गई लुट कर बहार-ए-ज़िंदगी

गोपाल कृष्णा शफ़क़

दिए से लौ नहीं पिंदार ले कर जा रही है

ग़ज़ाला शाहिद

थक थक गए हैं आशिक़ दरमांदा-ए-फ़ुग़ाँ हो

ग़ुलाम मौला क़लक़

ख़ुशी में भी नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ हूँ

ग़ुलाम मौला क़लक़

तसल्ली को हमारी बाग़बाँ कुछ और कहता है

ग़ुबार भट्टी

मुझे किस तरह से न हो यक़ीं कि उसे ख़िज़ाँ से गुरेज़ है

ग़ुबार भट्टी

पिया ख़मोश है मेरा

ग़ौसिया ख़ान सबीन

भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है

ग़ालिब अयाज़

जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही

ग़ालिब अयाज़

हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं

ग़ालिब

है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा

ग़ालिब

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का

ग़ालिब

कि इस से पहले ख़िज़ाँ का शिकार हो जाऊँ

गौतम राजऋषि

कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच

गणेश बिहारी तर्ज़

ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है

फ़िराक़ गोरखपुरी

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है

फ़िराक़ गोरखपुरी

जफ़ा-ए-यार को हम लुत्फ़-ए-यार कहते हैं

फ़िगार उन्नावी

कोहसारों में नहीं है कि बयाबाँ में नहीं

फ़ाज़िल अंसारी

मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

ख़िज़ाँ में चीनी चाय की दावत

फ़े सीन एजाज़

चश्म-ए-हैरत को तअल्लुक़ की फ़ज़ा तक ले गया

फ़सीह अकमल

कीसा-ए-गुल में बंद थी ख़ुशबू

फ़रताश सय्यद

अपनी आँखों के हिसारों से निकल कर देखना

फ़ारूक़ मुज़्तर

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