गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
रहे ख़याल कि अहद-ए-ख़िज़ाँ भी आता है
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कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
है नवेद-ए-बहार हर लब पर
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
फ़ैज़-ए-अय्याम-ए-बहार अहल-ए-क़फ़स क्या जानें
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
या दैर है या काबा है या कू-ए-बुताँ है
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल