हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
इक क़यामत पे इंहिसार नहीं
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इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
अपने दामन में एक तार नहीं
ब-सद अदा-ए-दिलबरी है इल्तिजा-ए-मय-कशी
ये महर-ओ-माह-ओ-कवाकिब की बज़्म-ए-ला-महदूद
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो