हज़ारों तमन्नाओं के ख़ूँ से हम ने
ख़रीदी है इक तोहमत-ए-पारसाई
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वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
जब कोई फ़ित्ना-ए-अय्याम नहीं होता है
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
चश्म-ए-सय्याद पे हर लहज़ा नज़र रखता है