जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
कभी पयाम अजल ना-गहाँ भी आता है
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तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
ब-सद अदा-ए-दिलबरी है इल्तिजा-ए-मय-कशी
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
तग-ओ-ताज़-ए-पैहम है मीरास-ए-आदम