वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल न हुआ
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मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी
जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है
या दैर है या काबा है या कू-ए-बुताँ है