हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
हम को एहसास-ए-ज़ियाँ भी तो नहीं होता है
Faiz Ahmad Faiz
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जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है
है नवेद-ए-बहार हर लब पर
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
अपने दामन में एक तार नहीं
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
मेरे लिए जीने का सहारा है अभी तक
तग-ओ-ताज़-ए-पैहम है मीरास-ए-आदम