ये महर-ओ-माह-ओ-कवाकिब की बज़्म-ए-ला-महदूद
सला-ए-दावत-ए-पर्वाज़ है बशर के लिए
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जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है
रानाई-ए-बहार पे थे सब फ़रेफ़्ता
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
फ़ैज़-ए-अय्याम-ए-बहार अहल-ए-क़फ़स क्या जानें
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे