भूमिका Poetry (page 3)

अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी

शीन काफ़ निज़ाम

कभी जंगल कभी सहरा कभी दरिया लिख्खा

शीन काफ़ निज़ाम

अजनबी

शाज़ तमकनत

ज़ख़्म सीने का फिर उभर आया

शायान क़ुरैशी

ज़बानें चुप रहें लेकिन मिज़ाज-ए-यार बोलेगा

शायान क़ुरैशी

शिकोह-ए-ज़ात से दुश्मन का लश्कर काँप जाता है

शायान क़ुरैशी

हालात के कोहना दर-ओ-दीवार से निकलें

शायान क़ुरैशी

हो कैसे किसी वादे का इक़रार रजिस्टर्ड

शौक़ बहराइची

किस एहसास-ए-जुर्म की सब करते हैं तवक़्क़ो

शारिक़ कैफ़ी

सर्कस में नौकरी का आख़िरी दिन

शारिक़ कैफ़ी

लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी

शारिक़ कैफ़ी

कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं

शारिक़ कैफ़ी

लोग क्यूँ ढूँड रहे हैं मुझे पत्थर ले कर

शमीम तारिक़

मुझ को तिरे ख़याल से वहशत कभी न थी

शकील जाज़िब

कहानी में छोटा सा किरदार है

शकील जमाली

अश्क पीने के लिए ख़ाक उड़ाने के लिए

शकील जमाली

चढ़ा हुआ है जो दरिया उतरने वाला है

शकील आज़मी

हम कि इंसान नहीं आँखें हैं

शहज़ाद अहमद

ज़िंदा रहने का ये एहसास

शहरयार

कैसा कैसा दर पस-ए-दीवार करना पड़ गया

शाहीन अब्बास

उदासी ने समाँ बाँधा हुआ है

शाहबाज़ रिज़्वी

सजे हैं हर तरफ़ बाज़ार ऐसा क्यूँ नहीं होता

शादाब उल्फ़त

दूर हुआ इबहाम कहानी ख़त्म हुई

शबनम शकील

बरतर समाज से कोई फ़नकार भी नहीं

शबाब ललित

लैला का अगर मुझ को किरदार मिला होता

सीमा शर्मा मेरठी

सानेहे लाख सही हम पे गुज़रने वाले

सीमा नक़वी

सर-ब-सर बदला हुआ देखा था कल यार का रंग

सावन शुक्ला

एक रौज़न के अभी किरदार में हूँ मैं

सौरभ शेखर

शब-ए-तारीक चुप थी दर-ओ-दीवार चुप थे

सरवर अरमान

फिर ऐसा मोड़ इस क़िस्से में आया

सरफ़राज़ ज़ाहिद

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