अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा
Jaun Eliya
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बयाज़ें खो गई हैं
रीत पर जितने भी नविश्ते हैं
मंज़िलों का निशान कब देगा
पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
धूल उड़ती है धूप बैठी है
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को
मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई
छीन कर वो लज़्ज़त-ए-सौत-ओ-सदा ले जाएगा
निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद
कई शक्लों में ख़ुद को सोचता है