यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख़्म भर गए
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सायों के साए में
धूल उड़ती है धूप बैठी है
पुरखों से जो मिली है वो दौलत भी ले न जाए
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
कोई दुआ कभी तो हमारी क़ुबूल कर
बीच का बढ़ता हुआ हर फ़ासला ले जाएगा
वहशत तो संग-ओ-ख़िश्त की तरतीब ले गई
ऊँची इमारतें तो बड़ी शानदार हैं
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है
किसी के साथ अब साया नहीं है
आँखों में रात ख़्वाब का ख़ंजर उतर गया