दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
बे-ख़ौफ़ कोई रास्ता चलने के लिए दे
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मंज़िलों का निशान कब देगा
अपनी पहचान भीड़ में खो कर
वो गुनगुनाते रास्ते ख़्वाबों के क्या हुए
छीन कर वो लज़्ज़त-ए-सौत-ओ-सदा ले जाएगा
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
कोई दुआ कभी तो हमारी क़ुबूल कर
बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
ऊँची इमारतें तो बड़ी शानदार हैं
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है