बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
लेकिन ज़मीन मिलती नहीं आसमान को
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किसी के साथ अब साया नहीं है
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
दोस्ती इश्क़ और वफ़ादारी
छीन कर वो लज़्ज़त-ए-सौत-ओ-सदा ले जाएगा
रीत पर जितने भी नविश्ते हैं
एक आसेब है हर इक घर में
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है
वहशत तो संग-ओ-ख़िश्त की तरतीब ले गई
वही न मिलने का ग़म और वही गिला होगा
धूल उड़ती है धूप बैठी है
अक्स ने आईने का घर छोड़ा
याद और याद को भुलाने में