बदलती रुत का नौहा सुन रहा है
नदी सोई है जंगल जागता है
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Gulzar
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आँखें कहीं दिमाग़ कहीं दस्त ओ पा कहीं
निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद
बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
बयाज़ें खो गई हैं
आँखों में रात ख़्वाब का ख़ंजर उतर गया
किसी के साथ अब साया नहीं है
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
पुरखों से जो मिली है वो दौलत भी ले न जाए
ऊँची इमारतें तो बड़ी शानदार हैं
दोस्ती इश्क़ और वफ़ादारी
सायों के साए में