निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफ़र में गुज़र गई
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ज़ुल्म तो बे-ज़बान है लेकिन
एक आसेब है हर इक घर में
अपनी पहचान भीड़ में खो कर
बीच का बढ़ता हुआ हर फ़ासला ले जाएगा
यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
किसी के साथ अब साया नहीं है
आज हर सम्त भागते हैं लोग
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को
पुरखों से जो मिली है वो दौलत भी ले न जाए