मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
दे रात की ठंडक को पिघलने की दुआ दे
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गली के मोड़ से घर तक अँधेरा क्यूँ है 'निज़ाम'
धूल उड़ती है धूप बैठी है
आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
बदलती रुत का नौहा सुन रहा है
छीन कर वो लज़्ज़त-ए-सौत-ओ-सदा ले जाएगा
अक्स ने आईने का घर छोड़ा
मंज़िलों का निशान कब देगा
बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
कई शक्लों में ख़ुद को सोचता है
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद