गली के मोड़ से घर तक अँधेरा क्यूँ है 'निज़ाम'
चराग़ याद का उस ने बुझा दिया होगा
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वही न मिलने का ग़म और वही गिला होगा
दोस्ती इश्क़ और वफ़ादारी
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
वहशत तो संग-ओ-ख़िश्त की तरतीब ले गई
कभी जंगल कभी सहरा कभी दरिया लिख्खा
बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
चुभन ये पीठ में कैसी है मुड़ के देख तो ले
जिन से अँधेरी रातों में जल जाते थे दिए
साहिलों की शफ़ीक़ आँखों में
पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
वो गुनगुनाते रास्ते ख़्वाबों के क्या हुए
धूल उड़ती है धूप बैठी है