साहिलों की शफ़ीक़ आँखों में
धूप कपड़े उतार कर चमके
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मौज-ए-हवा से फूलों के चेहरे उतर गए
कोई दुआ कभी तो हमारी क़ुबूल कर
वही न मिलने का ग़म और वही गिला होगा
पाँव में दूर का सफ़र चमके
आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
आँखों में रात ख़्वाब का ख़ंजर उतर गया
याद और याद को भुलाने में
बयाज़ें खो गई हैं
निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी