आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
मिल गया तो सोचता हूँ क्या करूँ
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एक आसेब है हर इक घर में
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
आज हर सम्त भागते हैं लोग
कोई दुआ कभी तो हमारी क़ुबूल कर
इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को
कहाँ जाती हैं बारिश की दुआएँ
सायों के साए में
मंज़र को किसी तरह बदलने की दुआ दे
मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई
निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है