चुभन ये पीठ में कैसी है मुड़ के देख तो ले
कहीं कोई तुझे पीछे से देखता होगा
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साहिलों की शफ़ीक़ आँखों में
बयाज़ें खो गई हैं
आरज़ू थी एक दिन तुझ से मिलूँ
ज़ुल्म तो बे-ज़बान है लेकिन
बूँद बन बन के बिखरता जाए
मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
गली के मोड़ से घर तक अँधेरा क्यूँ है 'निज़ाम'
कई शक्लों में ख़ुद को सोचता है
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है
मेरे अल्फ़ाज़ में असर रख दे