वृक्षारोपण Poetry (page 13)

पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है

फ़े सीन एजाज़

मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है

फ़ातिमा हसन

ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है

फ़ातिमा हसन

मिरी ज़मीं पे लगी आप के नगर में लगी

फ़ातिमा हसन

जड़ों से सूखता तन्हा शजर है

फ़सीह अकमल

कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए

फ़र्रुख़ जाफ़री

वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है

फ़ारूक़ नाज़की

वही मैं हूँ वही ख़ाली मकाँ है

फ़ारूक़ नाज़की

जूँही बाम-ओ-दर जागे

फ़ारूक़ नाज़की

सलीब-ए-मौजा-ए-आब-ओ-हवा पे लिक्खा हूँ

फ़ारूक़ मुज़्तर

मगर इन आँखों में किस सुब्ह के हवाले थे

फ़ारूक़ मुज़्तर

इक पल कहीं रुके थे सफ़र याद आ गया

फ़ारूक़ बख़्शी

ख़ाली नहीं है कोई यहाँ पर अज़ाब से

फ़ारूक़ अंजुम

जंग में जाएगा अब मेरा ही सर जान गया

फ़ारूक़ अंजुम

वो रोज़-ओ-शब भी नहीं हैं वो रंग-ओ-बू भी नहीं

फ़ारिग़ बुख़ारी

वो रोज़-ओ-शब भी नहीं है वो रंग-ओ-बू भी नहीं

फ़ारिग़ बुख़ारी

आ मुझे छू के हरा रंग बिछा दे मुझ पर

फ़रहत एहसास

कुछ बताता नहीं क्या सानेहा कर बैठा है

फ़रहत एहसास

हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं

फ़रहत एहसास

घर बनाने में तमाम अहल-ए-सफ़र लग गए हैं

फ़रहत एहसास

इक हवा आई है दीवार में दर करने को

फ़रहत एहसास

तू ने देखा है कभी एक नज़र शाम के बा'द

फ़रहत अब्बास शाह

जल्वा है वो कि ताब-ए-नज़र तक नहीं रही

फ़रहत अब्बास

मैं तिरे संग कैसे चलूँ हम-सफ़र तू समुंदर है मैं साहिलों की हवा

फ़रहान सालिम

हमें तो साथ चलने का हुनर अब तक नहीं आया

फ़रह इक़बाल

तेरा निगाह-ए-शौक़ कोई राज़-दाँ न था

फ़ानी बदायुनी

वो पहले अंधे कुएँ में गिराए जाते हैं

फख्र ज़मान

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