जूँही बाम-ओ-दर जागे
बस्तियों में घर जागे
अंजुम-ओ-क़मर जागे
आसमान पर जागे
आप ही के पहलू में
रात रात भर जागे
ऐसा ज़लज़ला आया
नींद से शजर जागे
रत-जगे से डरते हैं
'नाज़ुकी' मगर जागे
Javed Akhtar
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नींद क्यूँ नहीं आती
नई बासी कोई ख़बर दे दे
यूँही कर लेते हैं औक़ात बसर अपना क्या
अजीब रंग सा चेहरों पे बे-कसी का है
ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या
रंग ख़ाके में नया भर दूँगा मैं
वही मैं हूँ वही ख़ाली मकाँ है
बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ
भटक न जाता अगर ज़ात के बयाबाँ में
इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं
जब भी तुम को सोचा है
बचपन