शाखा Poetry (page 10)

ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी

रियाज़ ख़ैराबादी

रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर

रियाज़ ख़ैराबादी

पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे

रियाज़ ख़ैराबादी

ख़्वाब में भी नज़र आ जाए जो घर की सूरत

रियाज़ ख़ैराबादी

जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी

रियाज़ ख़ैराबादी

जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले

रिन्द लखनवी

बहारों को चमन याद आ गया है

रिफ़अत सुलतान

शहर-ए-शोर-ओ-शर तन्हा घर के बाम-ओ-दर तन्हा

रिफ़अत सरोश

वो शाख़-ए-गुल की तरह मौसम-ए-तरब की तरह

राज़ी अख्तर शौक़

वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी

राज़ी अख्तर शौक़

किसी के ज़ख़्म पर अश्कों का फाहा रख दिया जाए

रज़ा मौरान्वी

ये बात तिरी चश्म-ए-फुसूँ-कार ही समझे

रज़ा जौनपुरी

ये मिरी रूह सियह रात में निकली है कहाँ

रउफ़ रज़ा

जितना पाता हूँ गँवा देता हूँ

रउफ़ रज़ा

पत्ते तमाम हल्क़ा-ए-सरसर में रह गए

रऊफ़ ख़ैर

भले ही मिरा हौसला पस्त होता

राशिद मुफ़्ती

ये न सोचा था कड़ी धूप से रिश्ता भी तो है

राशिद अनवर राशिद

ख़िलाफ़ सारी लकीरें थीं हाथ मलते क्या

राशिद अनवर राशिद

इंकिशाफ़

राशिद आज़र

ये बे-नवाई हमारी सौदा-ए-सर है घर में बसा दिया है

राशिद आज़र

सर-ब-सर शाख़-ए-दिल हरी रहेगी

राशिदा माहीन मलिक

मैं ने कहीं थीं आप से बातें भली भली

रशीद क़ैसरानी

तनख़्वाह-ए-तबर बहर-ए-दरख़्तान-ए-कुहन है

रशीद लखनवी

अगर गुल की कोई पती झड़ी है

रशीद लखनवी

रात क्या सोच रहा था मैं भी

रसा चुग़ताई

ख़्वाब उस के हैं जो चुरा ले जाए

रसा चुग़ताई

ख़्वाब उस के हैं जो चुरा ले जाए

रसा चुग़ताई

मुस्तक़िल दीद की ये शक्ल नज़र आई है

राम कृष्ण मुज़्तर

'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर

राजेन्द्र मनचंदा बानी

न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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