अकेला Poetry (page 7)

किस किस को अब रोना होगा जाने क्या क्या भूल गया

शाज़ तमकनत

कौन देता रहा सहरा में सदा मेरी तरह

शाज़ तमकनत

जिन ज़ख़्मों पर था नाज़ हमें वो ज़ख़्म भी भरते जाते हैं

शाज़ तमकनत

बिखरे तो फिर बहम मिरे अज्ज़ा नहीं हुए

शाैकत वास्ती

बिखरे तो फिर बहम मिरे अज्ज़ा नहीं हुए

शाैकत वास्ती

क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है

शौकत परदेसी

मुझ को जहाँ में कोई दिल-आरा नहीं मिला

शौकत परदेसी

मेरे महबूब मिरे दिल को जलाया न करो

शौकत परदेसी

उदास हैं सब पता नहीं घर में क्या हुआ है

शारिक़ कैफ़ी

सूना आँगन नींद में ऐसे चौंक उठा है

शारिक़ कैफ़ी

नहीं मैं हौसला तो कर रहा था

शारिक़ कैफ़ी

कम से कम दुनिया से इतना मिरा रिश्ता हो जाए

शारिक़ कैफ़ी

कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं

शारिक़ कैफ़ी

ख़्वाब ऐसा भी नज़र आया है अक्सर मुझ को

शारिक़ जमाल

अधूरा जिस्म लिए पीछे हट रहा हूँ मैं

शारिक़ जमाल

शहर में कैसा ख़तर लगता है

शरीफ़ अहमद शरीफ़

ये अर्ज़-ओ-समा क़ुलज़ुम-ओ-सहरा मुतहर्रिक

शम्स रम्ज़ी

कमरे की दीवारों पर आवेज़ां जो तस्वीरें हैं

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

तिलिस्म-ए-सफ़र

शमीम क़ासमी

अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है

शमीम करहानी

तिरा जल्वा निहायत दिल-नशीं है

शमीम जयपुरी

ये कहो ये न कहो ऐसे कहो ऐसे नहीं

शमीम अब्बास

तन्हाई

शकील जाज़िब

आँख से आँख मिलाता है कोई

शकील बदायुनी

तवील हिज्र है इक मुख़्तसर विसाल के बा'द

शकील आज़मी

कुछ भी हो तक़दीर का लिक्खा बदल

शाइस्ता सहर

शब-ए-तन्हाई

शाइस्ता मुफ़्ती

आइना देखा तो सूरत अपनी पहचानी गई

शाइस्ता मुफ़्ती

मौत मेरी सखी

शाइस्ता हबीब

चमन ख़राब किया, हो ख़िज़ाँ का ख़ाना-ख़राब

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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