दर्पण Poetry (page 19)
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
असलम महमूद
न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के
असलम महमूद
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
असलम महमूद
जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा
असलम महमूद
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
असलम महमूद
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ
असलम महमूद
हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं
असलम कोलसरी
हर शख़्स इस हुजूम में तन्हा दिखाई दे
असलम अंसारी
गुबार-ए-एहसास-ए-पेश-ओ-पस की अगर ये बारीक तह हटाएँ
असलम अंसारी
दर्स-ए-आदाब-ए-जुनूँ याद दिलाने वाले
असलम अंसारी
मिस्र फ़िरऔन की तहवील में आया हुआ है
आसिम वास्ती
मिरी नज़र मिरा अपना मुशाहिदा है कहाँ
आसिम वास्ती
मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ
आसिम वास्ती
हम आइने में तिरा अक्स देखने के लिए
अशफ़ाक़ नासिर
अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं
अशफ़ाक़ नासिर
मौजों का अक्स है ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
असग़र गोंडवी
जब तक वो शो'ला-रू मिरे पेश-ए-नज़र न था
असद जाफ़री
फ़र्क़ इतना है कि तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब
असद भोपाली
ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का
असद भोपाली
ये जो शाम ज़र-निगार है
असअ'द बदायुनी
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
असअ'द बदायुनी
मैं ख़ाक छानता हूँ आफ़्ताब देखता हूँ
अरशद महमूद नाशाद
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
अरशद जमाल 'सारिम'
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं
अरशद जमाल 'सारिम'
ये बारीक उन की कमर हो गई
अरशद अली ख़ान क़लक़
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
अरशद अली ख़ान क़लक़
ये दिन
आरिफ़ा शहज़ाद
देख लो गे ख़ुद!
आरिफ़ा शहज़ाद
दोज़ख़ भी क्या गुमान है जन्नत भी है फ़रेब
आरिफ़ शफ़ीक़
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
आरिफ़ इमाम
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