सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
शराब पीते नहीं हम शराब देखते हैं
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फ़सील-ए-ज़ात से बाहर भी देखना है मुझे
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
एक पर्दा है बे-सबाती का
उसी की बात लिखी चाहे कम लिखी हम ने
अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे
तलाश-ए-रिज़्क़ का ये मरहला अजब है कि हम
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
अभी तो मैं ने फ़क़त बारिशों को झेला है
ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
उस गली से मिरे गुज़रने तक