हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
तुझे ही देख रहे हैं कि ख़्वाब देखते हैं
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एक पर्दा है बे-सबाती का
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
सब लहू जम गया उबाल के बीच
नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी
ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर
अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद
अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
कुछ ऐसे ज़ख़्म-ए-ज़माना का इंदिमाल किया
ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
फ़सील-ए-ज़ात से बाहर भी देखना है मुझे