एक पर्दा है बे-सबाती का
आइने और तिरे जमाल के बीच
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अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर
हालत-ए-हर्फ़ किस ने जानी है
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
कुछ ऐसे ज़ख़्म-ए-ज़माना का इंदिमाल किया
तुम्हारे हिज्र में मरना था कौन सा मुश्किल
नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी