इक बरस हो गया उसे देखे
इक सदी आ गई है साल के बीच
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अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
फ़सील-ए-ज़ात से बाहर भी देखना है मुझे
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
एक पर्दा है बे-सबाती का
नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी
अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद
ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
कुछ ऐसे ज़ख़्म-ए-ज़माना का इंदिमाल किया
तुम्हारे हिज्र में मरना था कौन सा मुश्किल