अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद
अपनी हस्ती को मिटा कर रक़्स कर
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हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर
उस गली से मिरे गुज़रने तक
नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी
हालत-ए-हर्फ़ किस ने जानी है
शायरी मुझ को अजब हाल में ले जाती है
ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
अभी तो मैं ने फ़क़त बारिशों को झेला है
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं