ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
तिरा चेहरा बनाती जा रही है
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कुछ ऐसे ज़ख़्म-ए-ज़माना का इंदिमाल किया
फ़सील-ए-ज़ात से बाहर भी देखना है मुझे
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
उस गली से मिरे गुज़रने तक
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
उसी की बात लिखी चाहे कम लिखी हम ने
ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर
हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
एक पर्दा है बे-सबाती का
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
तुम्हारे हिज्र में मरना था कौन सा मुश्किल
सब लहू जम गया उबाल के बीच