बना रहा हूँ अभी घर को आइना-ख़ाना
फिर अपने हाथ में पत्थर भी देखना है मुझे
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तलाश-ए-रिज़्क़ का ये मरहला अजब है कि हम
ज़ख़्म सब उस को दिखा कर रक़्स कर
हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
सब लहू जम गया उबाल के बीच
अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद
अभी तो मैं ने फ़क़त बारिशों को झेला है
इक बरस हो गया उसे देखे
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
कुछ ऐसे ज़ख़्म-ए-ज़माना का इंदिमाल किया
हालत-ए-हर्फ़ किस ने जानी है
नफ़स की आमद-ओ-शुद को वबाल कर के भी