तलाश-ए-रिज़्क़ का ये मरहला अजब है कि हम
घरों से दूर भी घर के लिए बेस हुए हैं
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अजब था नश्शा-ए-वारफ़तगी-ए-वस्ल उसे
हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
एक पर्दा है बे-सबाती का
सब लहू जम गया उबाल के बीच
उस गली से मिरे गुज़रने तक
बना रहा हूँ अभी घर को आइना-ख़ाना
हालत-ए-हर्फ़ किस ने जानी है
अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद
सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
इक बरस हो गया उसे देखे