ख़ून कितना बहा था मक़्तल में
मेरी आँखों में ख़ून उतरने तक
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सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं
मुझे मुझ से मिलाती जा रही है
सब लहू जम गया उबाल के बीच
तलाश-ए-रिज़्क़ का ये मरहला अजब है कि हम
ये मिट्टी मेरे ख़ाल-ओ-ख़द चुरा कर
हवस न जान तुझे छू के देखना ये है
इक बरस हो गया उसे देखे
बना रहा हूँ अभी घर को आइना-ख़ाना
तुम्हारे हिज्र में मरना था कौन सा मुश्किल
अपने ही पैरों से अपना-आप रौंद