बज़्म Poetry (page 24)

तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था

फ़िराक़ गोरखपुरी

सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात

फ़िराक़ गोरखपुरी

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था

फ़िराक़ गोरखपुरी

जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है

फ़िराक़ गोरखपुरी

हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए

फ़िराक़ गोरखपुरी

हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है

फ़िराक़ गोरखपुरी

इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से

फ़िराक़ गोरखपुरी

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की

फ़िराक़ गोरखपुरी

अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है

फ़िराक़ गोरखपुरी

आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था

फ़िराक़ गोरखपुरी

महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है

फ़िगार उन्नावी

शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है

फ़िगार उन्नावी

ख़राब-हाल हूँ हर हाल में ख़राब रहा

फ़ज़लुर्रहमान

तामीर-ए-नौ क़ज़ा-ओ-क़दर की नज़र में है

फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली

बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

जब उन की बज़्म में हर ख़ास ओ आम रुस्वा है

फ़य्याज़ फ़ारुक़ी

अपनी ग़ज़ल को ख़ून का सैलाब ले गया

फ़ारूक़ नाज़की

जो रहा यूँ ही सलामत मिरा जज़्ब-ए-वालहाना

फ़ारूक़ बाँसपारी

इस क़दर महव-ए-तसव्वुर हूँ सितमगर तेरा

फ़रोग़ हैदराबादी

वो रोज़-ओ-शब भी नहीं हैं वो रंग-ओ-बू भी नहीं

फ़ारिग़ बुख़ारी

वो रोज़-ओ-शब भी नहीं है वो रंग-ओ-बू भी नहीं

फ़ारिग़ बुख़ारी

क्या अदू क्या दोस्त सब को भा गईं रुस्वाइयाँ

फ़ारिग़ बुख़ारी

जब तक चराग़-ए-शाम-ए-तमन्ना जले चलो

फ़रहत शहज़ाद

जो कुछ भी है नज़र में सो वहम-ए-नुमूद है

फ़रहत कानपुरी

वो महफ़िलें पुरानी अफ़्साना हो रही हैं

फ़रहत एहसास

तमाम शहर की ख़ातिर चमन से आते हैं

फ़रहत एहसास

साहिब-ए-इश्क़ अब इतनी सी तो राहत मुझे दे

फ़रहत एहसास

इस तरह आता हूँ बाज़ारों के बीच

फ़रहत एहसास

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