महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है
हम कहाँ जाएँगे इस महफ़िल से उठ जाने के बा'द
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शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
लब पे झूटे तराने होते हैं
कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा
दिल मिरा शाकी-ए-जफ़ा न हुआ
अजीब कश्मकश है कैसे हर्फ़-ए-मुद्दआ कहूँ
किसी से शिकवा-ए-महरूमी-ए-नियाज़ न कर
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मेरे अश्क-ए-ग़म की तर्जुमानी है
हैं ये जज़्बात मिरे दर्द भरे दिल के फ़िगार
फूलों को गुलिस्ताँ में कब रास बहार आई
आदाब-ए-आशिक़ी से तो हम बे-ख़बर न थे
क़दम अपने हरीम-ए-नाज़ में इस शौक़ से रखना
चमन अपने रंग में मस्त है कोई ग़म-गुसार-ए-दिगर नहीं