दिल मिरा शाकी-ए-जफ़ा न हुआ
ये वफ़ादार बेवफ़ा न हुआ
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फूलों को गुलिस्ताँ में कब रास बहार आई
सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता
तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने
ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता
दिल है मिरा रंगीनी-ए-आग़ाज़ पे माइल
क़दम क़दम पे दोनों जुर्म-ए-इश्क़ में शरीक हैं
शिकस्त-ए-दिल की हर आवाज़ हश्र-आसार होती है
यक़ीन-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा हमें बावर नहीं आता
किसी अपने से होती है न बेगाने से होती है
चला हूँ अपनी मंज़िल की तरफ़ तो शादमाँ हो कर
किसी से शिकवा-ए-महरूमी-ए-नियाज़ न कर