दीवाने को मजाज़-ओ-हक़ीक़त से क्या ग़रज़
दैर-ओ-हरम मिले न मिले तेरा दर मिले
Ahmad Faraz
Gulzar
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Wasi Shah
Rahat Indori
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क़दम क़दम पे दोनों जुर्म-ए-इश्क़ में शरीक हैं
शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
शिकस्त-ए-दिल की हर आवाज़ हश्र-आसार होती है
हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है
का'बे में हो या बुत-ख़ाने में होने को तो सर ख़म होता है
तिरे ग़म के सामने कुछ ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं है
जफ़ा-ए-यार को हम लुत्फ़-ए-यार कहते हैं
तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने
किसी अपने से होती है न बेगाने से होती है
चला हूँ अपनी मंज़िल की तरफ़ तो शादमाँ हो कर
तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है