किसी से शिकवा-ए-महरूमी-ए-नियाज़ न कर
ये देख ले कि तिरी आरज़ू तो ख़ाम नहीं
Javed Akhtar
Gulzar
Allama Iqbal
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Mir Taqi Mir
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Faiz Ahmad Faiz
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तिरे ग़म के सामने कुछ ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं है
काबा भी घर अपना है सनम-ख़ाना भी अपना
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है
तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया
लब पे झूटे तराने होते हैं
एक ख़्वाब-ओ-ख़याल है दुनिया
सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता
परतव-ए-हुस्न से ज़र्रे भी बने आईने
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मेरे अश्क-ए-ग़म की तर्जुमानी है
हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है
क़दम अपने हरीम-ए-नाज़ में इस शौक़ से रखना