काबा भी घर अपना है सनम-ख़ाना भी अपना
हर हुस्न का जल्वा मिरा ईमान-ए-नज़र है
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किसी से शिकवा-ए-महरूमी-ए-नियाज़ न कर
परतव-ए-हुस्न से ज़र्रे भी बने आईने
सर-ए-महफ़िल हमारे दिल को लूटा चश्म-ए-साक़ी ने
ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता
जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है
इक तेरा आसरा है फ़क़त ऐ ख़याल-ए-दोस्त
हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है
हैं ये जज़्बात मिरे दर्द भरे दिल के फ़िगार
आदाब-ए-आशिक़ी से तो हम बे-ख़बर न थे
दिल मिरा शाकी-ए-जफ़ा न हुआ
किस काम का ऐसा दिल जिस में रंजिश है ग़ुबार है कीना है
दीवाने को मजाज़-ओ-हक़ीक़त से क्या ग़रज़