दिल है मिरा रंगीनी-ए-आग़ाज़ पे माइल
नज़रों में अभी जाम है अंजाम नहीं है
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चला हूँ अपनी मंज़िल की तरफ़ तो शादमाँ हो कर
हैं ये जज़्बात मिरे दर्द भरे दिल के फ़िगार
कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा
तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया
का'बे में हो या बुत-ख़ाने में होने को तो सर ख़म होता है
हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है
सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता
मायूस दिलों को अब छेड़ो भी तो क्या हासिल
दिल चोट सहे और उफ़ न करे ये ज़ब्त की मंज़िल है लेकिन
तिरे ग़म के सामने कुछ ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं है
आरज़ू हसरत-ए-नाकाम से आगे न बढ़ी
जफ़ा-ए-यार को हम लुत्फ़-ए-यार कहते हैं