बज़्म Poetry (page 8)
दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान
उस को अपनी ज़ात ख़ुदा की ज़ात लगी है
शेर अफ़ज़ल जाफ़री
उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
ज़ौक़
रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों साहब
ज़ौक़
मज़कूर तिरी बज़्म में किस का नहीं आता
ज़ौक़
एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में
ज़ौक़
न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से
ज़ौक़
गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं
ज़ौक़
दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे
ज़ौक़
कौन बरहम है ज़ुल्फ़-ए-जानाँ से
शैख़ अली बख़्श बीमार
ज़बाँ का ज़ाविया लफ़्ज़ों की ख़ू समझता है
शहपर रसूल
यार को महरूम-ए-तमाशा किया
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
उस का होना भी भरी बज़्म में है वज्ह-ए-सुकूँ
शाज़ तमकनत
तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए
शाज़ तमकनत
मेरी वहशत का तिरे शहर में चर्चा होगा
शाज़ तमकनत
क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे
शाज़ तमकनत
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
शाज़ तमकनत
फ़रियाद और तुझ को सितमगर कहे बग़ैर
शौक़ क़िदवाई
ये ख़बर आई है आज इक मुर्शिद-ए-अकमल के पास
शौक़ बहराइची
नई बज़्म-ए-ऐश-ओ-नशात में ये मरज़ सुना है कि आम है
शौक़ बहराइची
न दे साक़ी मुझे कुछ ग़म नहीं है
शौक़ बहराइची
गिन के देता है बला-नोशों को पैमाना अभी
शौक़ बहराइची
हसरतें बन कर निगाहों से बरस जाएँगे हम
शौकत परदेसी
दर से मायूस तिरे तालिब-ए-इकराम चले
शातिर हकीमी
दोस्ती में फ़ासले होते नहीं
शर्मा तासीर
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
शारिक़ कैफ़ी
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
शारिक़ कैफ़ी
हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
शारिक़ कैफ़ी
अपने पस-मंज़र में मंज़र बोलते
शरर फ़तेह पुरी
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