उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
अपनी बज़्म-ए-नाज़ से मुझ को उठा कर रो दिए
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शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
निकालूँ किस तरह सीने से अपने तीर-ए-जानाँ को
है ऐन-ए-वस्ल में भी मिरी चश्म सू-ए-दर
रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है 'ज़ौक़'
गुहर को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं
कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा
तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ 'ज़ौक़'
सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
बादाम दो जो भेजे हैं बटवे में डाल कर