सज्दे में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
काफ़िर की देखो शोख़ी घर में ख़ुदा के मारा
Wasi Shah
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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
क़ुफ़्ल-ए-सद-ख़ाना-ए-दिल आया जो तू टूट गए
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
फिर मुझे ले चला उधर देखो
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से