रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है 'ज़ौक़'
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त
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लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे
बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
दुनिया से 'ज़ौक़' रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ दे
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
हंगामा गर्म हस्ती-ए-ना-पाएदार का
न हुआ पर न हुआ 'मीर' का अंदाज़ नसीब
इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा