बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
पर क्या करें कि मोहर है मुँह पर लगी हुई
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तू जान है हमारी और जान है तो सब कुछ
याँ लब पे लाख लाख सुख़न इज़्तिराब में
मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ'
दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
मज़े जो मौत के आशिक़ बयाँ कभू करते
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे
कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे
रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों साहब